उत्तराखंड की वन पंचायत प्रणाली लंबे समय से स्थानीय समुदायों द्वारा जंगलों के संरक्षण और प्रबंधन का एक सफल मॉडल रही है। लेकिन वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 लागू होने के बावजूद, सामुदायिक वन अधिकार (CFR) और व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) पूरी तरह से मान्यता प्राप्त नहीं कर सके हैं। वन विभाग का बढ़ता नियंत्रण और नीतिगत बदलाव इस प्रक्रिया में रुकावट बने हैं, जिससे स्थानीय लोग अपने पारंपरिक अधिकारों और आजीविका के स्रोतों से वंचित हो रहे हैं। अगर वन पंचायतों को FRA के तहत सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन समिति (CFRMC) के रूप में पुनर्गठित किया जाए, तो यह समुदायों को अपने जंगलों का प्रबंधन करने और आजीविका के नए अवसरों को विकसित करने का अधिकार देगा।
उत्तराखंड में वन पंचायतें 1931 में अस्तित्व में आईं, ताकि स्थानीय लोग अपने जंगलों की सुरक्षा, प्रबंधन और वन उपज के उपयोग में भागीदार बन सकें। लेकिन 1976, 2001 और 2005 के संशोधनों ने पंचायतों की स्वायत्तता को कमजोर कर दिया, जिससे वन विभाग का नियंत्रण बढ़ गया और स्थानीय लोगों के अधिकार सीमित हो गए। अब हालात ऐसे हैं कि जिन जंगलों की देखभाल कभी गांवों के लोग खुद करते थे, उन्हीं जंगलों पर उनका अधिकार कम हो गया है।
अगर वन पंचायतों को FRA के तहत सामुदायिक वन अधिकार (CFR) के रूप में पुनर्संगठित किया जाए, तो इससे स्थानीय समुदायों को फिर से जंगलों का प्रबंधन करने और लघु वन उपज से आजीविका कमाने का अवसर मिलेगा। इसके अलावा, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि वन अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया तेज हो, ताकि वन संरक्षण और ग्रामीण आजीविका, दोनों को मजबूती मिले।
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वन पंचायत और वनाधिकार अधिनियम, 2006- विशेषताएं, समानताएं, भिन्नता एवं आपसी सहयोग की संभावनाएं
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